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Yes! We are in 21st century

Yes! We are in 21st century
(हां! हम 21वीं शताब्दी में हैं)

21वीं शताब्दी
यह सुनकर ही ऐसा प्रतीत होता है कि समय के चक्र के साथ हम कितना आगे निकल गए हैं।
अक्सर मैं अपने लेखों में शुरुवात में फ़ोटो का सहारा नही लेता हूँ परंतु, इस शब्द को जो ऊपर दिया है, गौर से समझने के लिए मुझे ऐसा करना पड़ा।
इस फोटो को ध्यान से देखिए ओर गौर कीजिए इसके एक एक शब्द को। ये मात्र चन्द शब्द ही नही हैं अपितु 21वीं शताब्दी का पूरा लेखा झोखा है। और ताजुब की बात यह है कि इसके आखिर में हरे लेख में यह लिखा है and more  मतलब यह पूरा विवरण नही है इसका । इन शब्दों के आगे भी बहुत ओर शब्द हैं  जो 21वीं सदी को बयां करे।ध्यान देने योग्य बात यह है कि जैसे जैसे हम अपने कदमों को आने वाले वर्षों की तरफ बढा रहे हैं इन शब्दों की संख्या बढ़ती जा रही है।
परंतु क्या हम वास्तविकता में इन शब्दों का मतलब समझ पाए हैं यह आवश्य एक चिंतनीय विषय है। मेरा यह कथन मात्र किसी नेता की पंक्ति नही है बल्कि अपने आप में अनेकों सवाल छुपाए हुए है।
आगे जाने से पहले मैं आपका ध्यान कुछ दृश्यों की तरफ करना चाहूंगा।



Adaptability, creativity, productivity, innovative etc etc अगर मैं गलत नहीं हूं तो इन सब शब्दों का यह अर्थ तो हरगिज़ नही निकलता जो इन फ़ोटो मैं दिखाया गया है। ध्यान दीजिए यह सारी फ़ोटो मेरे द्वारा बनाई नही गई हैं बल्कि यह एक बेहद चर्चित अखबार की कटिंग्स हैं। 
Caste ( जाती)  
सिंधु घाटी सभ्यता से जैसे जैसे मानव सभ्यता का विकास हुआ समाज का दायरा बढ़ने लगा ।इसी समाज में जाति या वर्ण का उद्भव भी हुआ जंहा जन्म आधार बनाया गया किसी के वर्ण का।
पुरातत्व विभाग द्वारा खोजी एक मूर्ति से वर्णों की उत्पत्ति के साक्ष्य मिले। यूँ तो इस विषय में पहले बहुत लेख लिखे जा चुके हैं जो इस विषय के बारे में अवगत करवाएं। वर्ण व्यवस्था का भेदभाव जब समाज में पकड़ जमाने लगा तो यह अपनी जड़ों को आधुनिक जगत तक पसार ले गया।
बेशक अम्बेडकर साहेब द्वारा इस भेदभाव को खत्म करने के प्रयास किया गए जब भारतीय संविधान में अनुछेद 17 के तहत छुआछूत को एक अपराध घोषित किया गया परंतु इन सुधारों की पहुंच क्या आधुनिक जगत तक पहुंच पाई यह एक सोचनीय विषय है जब रोज़मर्रा के समाचार पत्रों में भेदभाव की खबरों से रूबरू हुआ जाता है।
इसी बात का एक जीत जागता सुबूत यह रहा
https://youtu.be/kZcwyGTIluI
बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं परंतु जब इस भविष्य के साथ वर्ण आधार पर भेदभाव किया जाए तो आप अपने सुखद भविष्य की कामना भला कैसे कर सकते है।



सवाल यह नही है कि यह भेदभाव किस स्तर तक है गई बल्कि सवाल यह है कि यह 21वीं सदी में भी क्यों है????
Slums(झुग्गी झोंपड़ियां)
जाती प्रथा जंहा भारतीय समाज में एक व्यापक समस्या है वहीं झोपड़ पट्टियां भारत के उन्नति के स्तंभों को झिझोर कर रख देती हैं। जंहा एक ओर भारत की चंद्रमा तक पहुंच और विदेशों से आयात किए हथियार इस बात पर मुहर लगाते हैं कि भारत एक महान शक्ति रूप में उभर चुका है वही दूसरी तरफ मेट्रो सिटीज में बस्तियों की बढ़ती तादाद प्रश्नचिन्ह लगा देती है कि क्या देश की उन्नति को मापने के यह उचित आधार है??
इंग्लिश का यह कथन “great power comes great responsibility” अपने आप में एक गहन अर्थ छुपाए हुए है परंतु शायद भारत के भाग्य विधाता इससे सरोकार नही रखते। बिना तथ्यों के कथन की पुष्टि करना सर्वदा अनुचित होता है।
★ग्रेटर मुबई की बात की जाए तो कुल आबादी का 41.3%
★ कलकत्ता की 29.6%
★चेन्नई की 28%
★ दिल्ली की 15% आबादी बस्तियों में गुजर बसर करती है।
जनगणना के अनुसार भारत की लगभग 64 मिलियन आबादी झोंपडी पट्टियों में रहती है जो कि देश की कुल जनसंख्या का लगभग एकतिहाई है।

लेख को छोटा करने के लिए बस्तियों के कारण और परिणामों की व्याख्या इमेजेज द्वारा किया गया है।

सवाल यह है कि अगर इस आबादी को चुनाव में मतदान करने का हक़ है, भारतीय कहलाने का हक है, 12 अंक का आधार नंबर का हक़ है तो प्रगति की होड़ में यह पीछे क्यों है??? क्यों यह चिकित्सा सुविधा की पहुंच से बाहर है????
मैं कदापि इसका समर्थन नही करता कि दूसरों का हक मारकर इस समस्या का हल किया जाए परंतु मुह का निवाला छीनना कंहा तक जायज़ है???
यह सब देखनी के बाद भी हम सीना ठोक हर्ष से कहते हैं कि हां! हम 21वीं शताब्दी में है ।

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