Dholavira A Mystery
(धोलावीरा एक रहस्य)
स्वागत है आपका इस ब्लॉग में! आज का ब्लॉग पुर्णतः रहस्यात्मक विषय पर बना है । वैसे तो भारत की भूमि अपने भीतर अनेकों रहस्यों को दफनाए हुए है परंतु धोलावीरा भारतीय सभ्यता के उस राज को समेटे हुए है जिससे मानव सभ्यता के विकास को गहराई से समझने में सहायता मिलेगी।तो आइए चलते हैं उस रहस्यात्मक युग में जंहा से इसका उद्भव हुआ।
धोलावीरा इस शब्द की उत्पत्ति उस काल में हुई जब सिंधु सभ्यता अपने व्यापारिक सम्बन्धों को मिस्त्र व मैसोपोटामिया से कायम कर रही थी। उनके इस व्यापारिक विस्तार ने इस बात पर मुहर लगा दी थी कि सिंधु घाटी सभ्यता मात्र एक छोटे क्षेत्र में विकसित नही हुई थी। सिंधु सभ्यता के 6 मत्वपूर्ण क्षेत्रों में मोहनजोदड़ो,कालीबंगन,लोथल, हड़प्पा,राखिगढ़ और धोलावीरा प्रमुुुख थे।
विभाजन के बाद रेडक्लिफ रेखा ने यह प्रमाणित कर दिया कि मोहनजोदड़ो जो एक मुख्य क्षेत्र था पर पाकिस्तान की मुहर लग चुकी है। जिस कारण भारतीय पुरात्तव विभाग से ज्ञान का एक व्यापक संसाधन दूर हो गया।
किसी समय में जलमग्न रहा धोलावीरा जब विवर्तनिकी से सामने आया तो पुरात्तव विभाग को आशा की किरण दिखाई दी।
बात उस समय की है जब पुरात्वविदों का एक दल गुजरात के पश्चिमी तट पर भारत में नमक का समुद्र कहे जाने वाले कच्छ से सिंध तक के मार्ग को खोज रहे थे। 1967 से चले इस कार्य को सफलता तब मिली जब 1990 के आस पास खुदाई में हैरतअंगेज साक्ष्य मिले जिसने मानव सभ्यता के अध्याय में एक रहस्यात्मक पन्ने को संकलित किया। जिसका नाम था धोलावीरा।
धोलावीरा गुजरात के कच्छ में मौजूद है जो कि किसी समय में एक नगर हुआ करता था । धोलावीरा उत्तर पश्चिम में मनसर और दक्षिण पूर्व में मनहर नदी से घिरा था।
जंहा आज के युग में जल एक भीषण समस्या बनकर उभरी है और ऐसे कयास लगाए जा सकते हैं कि भविष्य में जल पर युद्ध भी छिड़ सकते हैं, धोलावीरा वासियों ने इस समस्या का हल बेहतरीन तरीके से निकला। दो नदियों के बीच में होने के कारण भी कभी बाढ़ जैसी समस्याओं से उन्हें सामना नही करना पड़ा।
उस समय में ज्यामिति, ट्रिग्नोमेट्री, जल निकासी, सिविल इंजीनियरिंग का ऐसा मोज़ायरा हैरान करने वाला है। धौलावीरा एक आयताकार आकृति के रूप में था। जायज है कि नगर को बसाने के लिए प्लेटफॉर्म बनाया गया था । चूंकि यह दो नदियों के बीच था तो बाहर की दीवारों को इतना ऊंचा और मजबूत बनाया गया कि आज तक उसके साक्ष्य देखने को मिलते है। जंहा एक ओर आधुनिक युग में इमारतें हल्के भूकम्प से जर्जर हो जाती हैं उस समय में पक्की दीवारों का बनना जरूर एक चोंकाने वाली बात है।
कच्छ शुरू से ही शुष्क स्थान रहा है जिस कारण धोलावीरा के लोग प्रकृति व नदी पर निर्भर न होकर जल संचय करने की कला में माहिर निकले। सरकार द्वारा जंहा आज जल संरक्षण के लिए नई योजनाएं बनाई जा रही है , उस समय में वँहा जल का ऐसा प्रबन्धन सिर चकरा देने वाला होता है।
वर्षा जल को भूमिगत नालियों द्वारा बड़े बड़े टैंकों में संचय किया जाता था। कुओं ,बानवड़ियों के तो मानो भंडार मौजूद थे। मोहनजोदड़ो के स्नानागार से बड़ा टैंक का मिलना इस बात का प्रतीक है कि जल कि महत्ता को कितने बेहतर ढंग से समझा गया ।एक आकलन के अनुसार धोलावीरा में इतना पानी संचय हो सकता था कि 18,000 तक कि आबादी पूरा साल उसका उपयोग कर सके।
सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता था । भूमिगत निकासी की व्यवस्था थी जिससे सारा अपशिष्ट पदार्थ नगर बाहर निकाल दिया जाता था जो आज बड़े बड़े नगरों तक में देखने तक को नही मिलता।
नगर की बात की जाए तो यह पक्के पत्थरों व ईंटों से बना था जिन ईंटों को निश्चित अनुपात 1:4:3 में बनाया गया था। नगर के भीतर दुर्ग था व दो बस्ती जिसे ऊपरी व निचली बस्ती कंहा जाता था। दुर्ग व बस्ती एक निश्चित अनुपात 5:4 में बने थी व हर रास्ता एक दूसरे को 90° पर काटता था। नगर की ढाल का उपयोग उस तरह किआ जाता कि जल सीधा टैंकों में गिरे।
यंहा तक कि गलियों की चौड़ाई तक एक की गई थी ताकि भीड़ भाड़ से बचा जा सके। अतिरिक्त जल को निकासी द्वारा खेतों में छोड़ दिया जाता था।
पुरात्तव विभाग द्वारा जब खुदाई की गई तो उन्हें शुरुवात में जिप्सम से बने कुछ निशान दिखाई दिये लगातार खोदने पर उनकी एक शृंखला दिखाई दी जो कि वँहा की भाषा भी जिसे चिन्हों से प्रदर्शित किया गया।
हैरानगी की बात यह थी कि यह नगर के मुख्य दरवाजे पर लिखी थी जिससे यह सिद्ध होता है कि यह भीतर जाने के निर्देश थे।
पशुओं की मोहरें, तराज़ू, बट्टों का वजूद इस बात का प्रतीक था कि वह भी बाकी जैसे एक व्यापारिक सभ्यता थी व पशुओं को पूजा जाता था।
यदि आज के समय में ऐसी निर्माण कला देखी जाए तो अचम्भा हरगिज़ न हो परंतु 5000 साल पहले जब विज्ञान का नमो निशान न था ऐसी कला देखना जो लगभग 1450 साल तक चली अपने आप में हज़ारों सवाल खड़े करती है।
साथ ही अपने साथ कई रहस्यमयी सवाल छोड़ देता है जैसे वह भाषा क्या थी?
वह लोग आए कंहा से थे?
उन लोगो ने ऐसी कला सीखी कंहा?
इंजीनियरिंग की उस कला का स्वामी कौन था?
उस भाषा को क्या कभी पढा जाएगा?
वो लोग गए कंहा?
उस सभ्यता का अंत कैसे हुआ? क्या मात्रा जलवायु परिवर्तन व ITCZ का विस्थापन इसका आधार माना जा सकता है?
वो लोग कंहा जाकर बसे? यही बसे तो आज उनकी भाषा समझने वाला क्यो नही मिलता ?
ऐसे अनेक सवाल इस जगह से जुड़े हैं , यदि इनका उत्तर मिल जाए तो आधुनिकता में नए आयाम हासिल किए जा सकते हैं।
अन्यथा यह मात्र एक रहस्य बनकर ही रहेगा व यह सवाल मस्तिष्क के सागर में हिलोरे खाता रहेगा कि क्या हम कभी इस रहस्य को जान पाएंगे????
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