कुछ बीते दिन और तुम एक रोज़ बैठा था बालकनी में, निहार रहा था उस डूबते सूरज को। एक और दिन कैसे निकल गया मानो पता ना चला। घर लौटते पक्षी, सरसराहती हवा, और क्षितीज पर धुंधली पड़ती लालिमा जैसे कह रहे हो कि तू फ़िजूल में आस लगाए बैठा है। हां ! वैसे सही भी है , प्लेटफार्म पर बैठ कर हवाई जहाज़ की राह ताकना भला कंहा की समझदारी है। यह सब देख कर मानो हाथ दिल की बातों को कहने पर उतारू हो गए। इस तरह शुरुवात होती है उन चंद पंक्तियों की जो आज इस पन्ने पर छपने वाली हैं। ●एक रोज़ जो बैठा उस मोड़ पर, जंहा दामन तेरा छूटा था। छोड़ मैं भी देता तुझे, अगर तूने सिर्फ मुझे छोडा होता। कैसे रुख करूँ भला आशियाने की तरफ, जबकि तूने मुझे छोड़, कंही का नही छोड़ा। ●मुसलसर उन्ही राहों से गुजरता हूँ अक्सर, चाह में,कंही दीदार तेरा हो जाए। तू बता कैसे राह अपनी बदल लूं, जबकि तूने राह छोड़ मुझे किसी राह का न छोड़ा। ●वो टिकटिकाहट घड़ी की अभी भी 11 बजती है, ठंडी सर्द रातें अभी भी बेहद सताती हैं, इयर फ़ोन का वो कानो तक पहुंचना, किवाड़ कमरे के आज भी बंद हो जाते हैं, पुराने बने इस हसीन मौसम में, गुफ़्तगू किसी