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Showing posts from January, 2020

कुछ बीते दिन और तुम

कुछ बीते दिन और तुम एक रोज़ बैठा था बालकनी में, निहार रहा था उस डूबते सूरज को। एक और दिन कैसे निकल गया मानो पता ना चला। घर लौटते पक्षी, सरसराहती हवा, और क्षितीज पर धुंधली पड़ती लालिमा जैसे कह रहे हो कि तू फ़िजूल में आस लगाए बैठा है। हां ! वैसे सही भी है , प्लेटफार्म पर बैठ कर हवाई जहाज़ की राह ताकना भला कंहा की समझदारी है।  यह सब देख कर मानो हाथ दिल की बातों को कहने पर उतारू हो गए। इस तरह शुरुवात होती है उन चंद पंक्तियों की जो आज इस पन्ने पर छपने वाली हैं। ●एक रोज़ जो बैठा उस मोड़ पर, जंहा दामन तेरा छूटा था। छोड़ मैं भी देता तुझे, अगर तूने सिर्फ मुझे छोडा होता। कैसे रुख करूँ भला आशियाने की तरफ, जबकि तूने मुझे छोड़, कंही का नही छोड़ा। ●मुसलसर उन्ही राहों से गुजरता हूँ अक्सर, चाह में,कंही दीदार तेरा हो जाए। तू बता कैसे राह अपनी बदल लूं, जबकि तूने राह छोड़ मुझे किसी राह का न छोड़ा। ●वो टिकटिकाहट घड़ी की अभी भी 11 बजती है, ठंडी सर्द रातें अभी भी बेहद सताती हैं, इयर फ़ोन का वो कानो तक पहुंचना, किवाड़ कमरे के आज भी बंद हो जाते हैं, पुराने बने इस हसीन मौसम में, गुफ़्तगू किसी

बेरंग समा

बेरंग समा ●दामन जब तेरा छूटा, अंधेरों से रिश्ता जोड़ लिया हमने। ●रंगों से दुश्मनी हो गयी है, नसीब काली रातों को मान लिया हमने। ●लगता है डर रंगीन सुबह को देखकर,  रुख रातों की तरफ अपना कर लिया हमने। ●खिले रुखसार खुद के पसंद नहीं मुझे, बीती तस्वीरों को निहारना छोड़ दिया हमने ●छेद रहे थे रंग दिल को गहराई से, लिबास में कालिख को अपना लिया हमने। ●दीदार अक्सर तेरा होने लगा था खुद में, निहारना खुद को छोड़ दिया है हमने। ●ज़िक्र तेरा ना हो जाए कंही भरी सभा में, अपनों से भी मुंह मोड़ लिया है हमने। ●और कितना बदलें खुद को बता ए मेहरमा,  तेरे लिए खुद का क़त्ल कर दिया हमने। कुछ बीते दिन आवर तुम: https://predatorashu.blogspot.com/2020/01/blog-post_13.html

हम और हम

हम और हम ●अकेला सा पड़ जाता है इंसान जब मतलब दुनिया के पूरे हो जाते हैं। ●भीड़ से अनजान हो जाता है इंसान, जब बिगुल बगावत के बजाए जाते हैं। ●ये इंसान है, जात तो गद्दार होगी ही, वफादारी के ताज तो सिर्फ कुत्तों को पहनाए जाते हैं। ●रिश्ते तब दरकिनार हो जाते हैं, जब दरमियां मैं हम के आ जाते हैं। ●मिलनसार भी अजनबी बन जाते हैं, जब अपनों के बीच फसाने गैरों के आ जाते हैं। ●जगह नही होती अहम की ग़ालिब रिश्तों में, अहम जंहा आए रिश्ते वो अहमियत खो जाते हैं। ●कीमत बुलंदी की सिफर है अपनों में, बिना अपनो के नायाब महल वीराने हो जाते हैं ।