Changing India or myth
भारत यह मात्र एक शब्द ही नही अपितु स्वयं में बदलाव का एक जीता जागता सबुत है। सिंधु घाटी सभ्यता से शुरू होकर मुगल काल, ब्रिटश काल तदोपरांत आज का आदुनिक युग इस देश ने बेहद अलग बदलावों का सामना किया है। इसलिए इसे यदि बदलावों का अनुभवी भी कहें तो भी गलत नही होगा।
सिंधु घाटी सभ्यता जो कि विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है इस बदलाव का मुख्य भाग है।
यदि इसे भारत के बदलवा का आरंभिक चरण माने तो भी गलत नही होगा। भूमिगत निकासी , पानी का प्रबंध और भी अन्य कई उदाहरणों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आधुनिक युग की वैज्ञानिकता के पेड़ का बीज बहुत पहले बो चुका था। उस समय व्यक्ति को आगे बढ़ने की होड़ थी परंतु स्वार्थ का भाव मन में ना था। शायद तभी यह सभ्यता हर जगह समान रूप से विकसित हुई।
आर्यों का आगमन भी इस देश के बदलावों के एक अंग रह चुका है। मध्य एशिया से आई इस नस्ल का प्रभाव आजतक देखने को मिलता है।
धीरे धीरे जब सम्पूर्ण विश्व अपने वजूफ को पहचान रहा था भारत आकर्षण का एक ऐसा केंद्र बन गया जिसकी तरफ हर एक कोने से लोगो का आना शुरू हुआ।
इस चेहरे को भला कोई कैसे भूल सकता है। वास्को डी गामा ये इस व्यक्ति है जिसे शायद ही परीचय की आवश्यकता होगी। 1498 में भारत के तट पर इसकी पहुंच ने भारत के इतिहास में जो पन्ना जोड़ा उसके शब्दों को हम आज भी बड़े आसानी से पढ़ सकते हैं।
बदलाव के इस चरण में भारत को अगर बहुत कुछ मिला है तो भारत में ना जाने कितना कुछ खोया भी है।
मुगल काल से होकर ब्रिटिश काल में भारत ने जो परिवर्तन को महसूस किया है वह अपने आप में इस बदलाव की गवाही देता है।
परंतु
जैसे जैसे भारत आधुनिकता की ओर चलता गया अपनी एकता ,अखण्डता ओर मानवता को पीछे छोड़ता गया। आज भारत आसमान की बुलंदियों को छूने से भी हिजकीचता नही है।
गौर से देखिए इस फोटो को यह मेरी ईजात की हुई नही है। भारत का चांद पर पहुंचना यह कोई नकारात्मक बात नही है परंतु दूसरी फ़ोटो यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या इसकी आवश्यकता थी?
चाँद पर पहुंचना बेशक अपने आप में गर्व हो सकता है परंतु उस विपत्ति का क्या जो हरसाल आपके विकास और बदलाव की धज्जियां उड़ा देती हैं। आगे बढ़ने की होड़ में प्राथमिकता को नज़रअंदाज़ करना कहा कि समझदारी है?
हर साल लाखों बेघर हुए लोगों को चाँद पर आशियाना देने का वादा कौन करता है?
विश्व में विकास के नाम पर छाती पीटना कंहा की समझदारी है जबकि आपके पांव कोढ़ ग्रसित हैं।
सेवक या भक्षक , कौन अमीर कौन गरीब
अक्सर लोकतंत्र में नेताओं को जनता का रक्षक व सेवक कहा जाता है परंतु यदि सेवक भक्षक बन जाए तो उसका का प्रभाव क्या हो यह आसानी से देखा जा सकता है। भारत ही नही अपितु लगभग सभी उन देशों में जंहा लोकतंत्र विराजमान है यह देखने को मिलता है।
ये रहे आपके सेवक ओर रक्षक क्या यही लोकतंत्र है जिसकी व्याख्या भारतीय संविधान में की गई है। आयदिन भारत के नेताओं के वेतन में इज़ाफ़ा हो रहा है। दूसरी तरफ किसानों का कर्जों से मारना अभी भी खत्म नही हुआ है।
कर्जों को माफ करना बेहद मुश्किल कार्य है परंतु नेता के वेतन और आरामगी के लिए पैसा मानो पेड़ पर ही लगता है।
सेवक आज निजी जहाजों में यात्रा करता है और जिसे लोकतंत्र में सर्वोच्च कहा गया आयदिन उनकी मरने की खबरें मिलती भरी ट्रेनों से गिरने के कारण।
क्या यही बदलता भारत है?
क्या महिलासशक्तिकरण वास्तव में हुआ है?
यह सवाल आज भी खुद में उलझे हुए है।
एक तरफ हेमा दाास का स्वर्ण लाना ओर देेेश का नाम ऊंचा करना व दूसरी तरफ आयदिन होते बलात्कार ये कंहा तक भारत की तस्वीर साफ करते है। किसी भी समाचार पत्र को पढ़ के देख लीजिए ईज्जत का उड़ना आज एक आम बात हो गयी है। निर्भया के किस्सा मानो फीका पड़ने लगा ही था कि हैदराबाद में एक ओर कालिख पोथा गया।
हांलांकि सरकार की तरफ से काफी प्रयास किए जा रहे है परंतु क्या यह काफी हैं? यह सोचने वाली बात है।
मीडिया:~
आधुनिक जागत में इस शब्द से भला कौन वाकिफ नही है। लोकतंत्र के मजबूत स्तंभों में से एक शायद आज अपनी जर्जर अवस्था में है।
जनता को जागरूक व सच्चाई से मुखातिब करने के लिए शायद मीडिया का उपयोग किया जाता है , ऐसा मुझे और मुझसे सरोकार रखने वाले लोगों को लगता है। परंतु आज यह किस हद तक अपना किरदार निभा रहा है मैं यह आपसे पूछता हूँ।
एक समय था जब समाचार चैनल्स पर देश से जुड़े गंभीर मुद्दों को दिखाया जाता था। क्या आज ऐसा है??????
भारत जैसे देश में जंहा बेरोजगारी, दैनिक समस्या,किसान आत्महत्या, आर्थिक मंदी, मुद्रास्फीति(मंहगाई) ,सीमा पर शहीद होते सैनिक, प्राकृतिक आपदाओं से मरने वालो की संख्या व महिला सुरक्षा एक गंभीर समस्या है ऐसा मुझे लगता है शायद समाचार चैनल मुझसे सरोकार नही रखते।
हमारे लिए यह जानना बेहद आवश्यक है कि हमारे पडोसी देश के क्या हालात हैं, जीडीपी की दर वँहा क्या है, जबकि हमारी जीडीपी उनसे कई गुना अधिक है, ऐसा मीडिया का मानना है शायद यह सही होगा तभी उनके द्वारा यह दिखाया जाता है।
ट्विटर के एक पेज द्वारा पिछले कुछ डिबेट का सर्वे किआ गया जिसका परिणाम यह रहा
समाचार के नाम पर कॉमेडी शो देखने को मिलता है व इसकी आड़ में मुख्य मुद्दों को छुपाया जाता है।
क्या यही पत्रकारिता था जिसको भारत में जन्म राजा राममोहन रॉय ने दिया था????
गौर आवश्य कीजिये गा।
अंत में मैं यह सवाल आप पर है थोपता हूं क्योंकि देश का व्यक्ति ही इसका रचनाकार है
क्या यही बदलता भारत है?
भारत यह मात्र एक शब्द ही नही अपितु स्वयं में बदलाव का एक जीता जागता सबुत है। सिंधु घाटी सभ्यता से शुरू होकर मुगल काल, ब्रिटश काल तदोपरांत आज का आदुनिक युग इस देश ने बेहद अलग बदलावों का सामना किया है। इसलिए इसे यदि बदलावों का अनुभवी भी कहें तो भी गलत नही होगा।
सिंधु घाटी सभ्यता जो कि विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है इस बदलाव का मुख्य भाग है।
यदि इसे भारत के बदलवा का आरंभिक चरण माने तो भी गलत नही होगा। भूमिगत निकासी , पानी का प्रबंध और भी अन्य कई उदाहरणों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि आधुनिक युग की वैज्ञानिकता के पेड़ का बीज बहुत पहले बो चुका था। उस समय व्यक्ति को आगे बढ़ने की होड़ थी परंतु स्वार्थ का भाव मन में ना था। शायद तभी यह सभ्यता हर जगह समान रूप से विकसित हुई।
आर्यों का आगमन भी इस देश के बदलावों के एक अंग रह चुका है। मध्य एशिया से आई इस नस्ल का प्रभाव आजतक देखने को मिलता है।
धीरे धीरे जब सम्पूर्ण विश्व अपने वजूफ को पहचान रहा था भारत आकर्षण का एक ऐसा केंद्र बन गया जिसकी तरफ हर एक कोने से लोगो का आना शुरू हुआ।
इस चेहरे को भला कोई कैसे भूल सकता है। वास्को डी गामा ये इस व्यक्ति है जिसे शायद ही परीचय की आवश्यकता होगी। 1498 में भारत के तट पर इसकी पहुंच ने भारत के इतिहास में जो पन्ना जोड़ा उसके शब्दों को हम आज भी बड़े आसानी से पढ़ सकते हैं।
बदलाव के इस चरण में भारत को अगर बहुत कुछ मिला है तो भारत में ना जाने कितना कुछ खोया भी है।
मुगल काल से होकर ब्रिटिश काल में भारत ने जो परिवर्तन को महसूस किया है वह अपने आप में इस बदलाव की गवाही देता है।
परंतु
जैसे जैसे भारत आधुनिकता की ओर चलता गया अपनी एकता ,अखण्डता ओर मानवता को पीछे छोड़ता गया। आज भारत आसमान की बुलंदियों को छूने से भी हिजकीचता नही है।
गौर से देखिए इस फोटो को यह मेरी ईजात की हुई नही है। भारत का चांद पर पहुंचना यह कोई नकारात्मक बात नही है परंतु दूसरी फ़ोटो यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या इसकी आवश्यकता थी?
चाँद पर पहुंचना बेशक अपने आप में गर्व हो सकता है परंतु उस विपत्ति का क्या जो हरसाल आपके विकास और बदलाव की धज्जियां उड़ा देती हैं। आगे बढ़ने की होड़ में प्राथमिकता को नज़रअंदाज़ करना कहा कि समझदारी है?
हर साल लाखों बेघर हुए लोगों को चाँद पर आशियाना देने का वादा कौन करता है?
विश्व में विकास के नाम पर छाती पीटना कंहा की समझदारी है जबकि आपके पांव कोढ़ ग्रसित हैं।
सेवक या भक्षक , कौन अमीर कौन गरीब
अक्सर लोकतंत्र में नेताओं को जनता का रक्षक व सेवक कहा जाता है परंतु यदि सेवक भक्षक बन जाए तो उसका का प्रभाव क्या हो यह आसानी से देखा जा सकता है। भारत ही नही अपितु लगभग सभी उन देशों में जंहा लोकतंत्र विराजमान है यह देखने को मिलता है।
ये रहे आपके सेवक ओर रक्षक क्या यही लोकतंत्र है जिसकी व्याख्या भारतीय संविधान में की गई है। आयदिन भारत के नेताओं के वेतन में इज़ाफ़ा हो रहा है। दूसरी तरफ किसानों का कर्जों से मारना अभी भी खत्म नही हुआ है।
कर्जों को माफ करना बेहद मुश्किल कार्य है परंतु नेता के वेतन और आरामगी के लिए पैसा मानो पेड़ पर ही लगता है।
सेवक आज निजी जहाजों में यात्रा करता है और जिसे लोकतंत्र में सर्वोच्च कहा गया आयदिन उनकी मरने की खबरें मिलती भरी ट्रेनों से गिरने के कारण।
क्या यही बदलता भारत है?
क्या महिलासशक्तिकरण वास्तव में हुआ है?
यह सवाल आज भी खुद में उलझे हुए है।
एक तरफ हेमा दाास का स्वर्ण लाना ओर देेेश का नाम ऊंचा करना व दूसरी तरफ आयदिन होते बलात्कार ये कंहा तक भारत की तस्वीर साफ करते है। किसी भी समाचार पत्र को पढ़ के देख लीजिए ईज्जत का उड़ना आज एक आम बात हो गयी है। निर्भया के किस्सा मानो फीका पड़ने लगा ही था कि हैदराबाद में एक ओर कालिख पोथा गया।
हांलांकि सरकार की तरफ से काफी प्रयास किए जा रहे है परंतु क्या यह काफी हैं? यह सोचने वाली बात है।
मीडिया:~
आधुनिक जागत में इस शब्द से भला कौन वाकिफ नही है। लोकतंत्र के मजबूत स्तंभों में से एक शायद आज अपनी जर्जर अवस्था में है।
जनता को जागरूक व सच्चाई से मुखातिब करने के लिए शायद मीडिया का उपयोग किया जाता है , ऐसा मुझे और मुझसे सरोकार रखने वाले लोगों को लगता है। परंतु आज यह किस हद तक अपना किरदार निभा रहा है मैं यह आपसे पूछता हूँ।
एक समय था जब समाचार चैनल्स पर देश से जुड़े गंभीर मुद्दों को दिखाया जाता था। क्या आज ऐसा है??????
भारत जैसे देश में जंहा बेरोजगारी, दैनिक समस्या,किसान आत्महत्या, आर्थिक मंदी, मुद्रास्फीति(मंहगाई) ,सीमा पर शहीद होते सैनिक, प्राकृतिक आपदाओं से मरने वालो की संख्या व महिला सुरक्षा एक गंभीर समस्या है ऐसा मुझे लगता है शायद समाचार चैनल मुझसे सरोकार नही रखते।
हमारे लिए यह जानना बेहद आवश्यक है कि हमारे पडोसी देश के क्या हालात हैं, जीडीपी की दर वँहा क्या है, जबकि हमारी जीडीपी उनसे कई गुना अधिक है, ऐसा मीडिया का मानना है शायद यह सही होगा तभी उनके द्वारा यह दिखाया जाता है।
ट्विटर के एक पेज द्वारा पिछले कुछ डिबेट का सर्वे किआ गया जिसका परिणाम यह रहा
कंहा है महिला सुरक्षा के मुद्दे, कंहा है बेरोजगारी????
मेरा सवाल यह है कि क्या यही समाचार का अर्थ है?
यह मात्र इसी चैनल की बात नहीं अपितु अनेक चैनल के हालात हैं।समाचार के नाम पर कॉमेडी शो देखने को मिलता है व इसकी आड़ में मुख्य मुद्दों को छुपाया जाता है।
क्या यही पत्रकारिता था जिसको भारत में जन्म राजा राममोहन रॉय ने दिया था????
गौर आवश्य कीजिये गा।
अंत में मैं यह सवाल आप पर है थोपता हूं क्योंकि देश का व्यक्ति ही इसका रचनाकार है
क्या यही बदलता भारत है?
Comments
Post a Comment